चित्रलेखा का चरित्र चित्रण – Chitralekha Ka Charitra Chitran
चित्रलेखा का चरित्र चित्रण- चित्रलेखा प्रस्तुत उपन्यास की नायिका है। वह एक साधारण ब्राह्मण परिवार की विधवा युवती है जो अपने पारिवारिक संस्कारों में संयमित जीवन यापन करना चाहती है। इसी समय उसके जीवन में कृष्णादित्य का प्रवेश होता है जहां से उसका जीवन अनंत समुद्र में हिचकोलें खाती नाव की तरह बन जाता है। यद्यपि कि वह अपने व्यवसाय के प्रति भी पूर्णतः प्रतिबध्द है इसीलिये बीजगुप्त से कहती है- ” नहीं, मैं व्यक्ति से नहीं मिलती। मैं केवल समुदाय के सामने आती हूँ, व्यक्ति का मेरे जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं। ”
उपन्यास में चित्रलेखा पाटलिपुत्र की सुंदर नर्तकी के रूप में प्रस्तुत होती है। उसका वेश्यावृत्ति स्वीकार न करना उनके व्यक्तित्व से संबंधित असाधारण बात है। उसके कई कारण थे और उन कारणों का उसके विगत जीवन से गहरा संबंध था । वह विधवा उस समय हुई थी, जिस समय उसकी अवस्था अठारह वर्ष की थी। विधवा होने के बाद संयम उसका नियम हो गया था किंतु ऐसा अधिक दिनों तक नहीं चल सका। एक दिन उसके जीवन में कृष्णादित्य ने प्रवेश किया। कृष्णादित्य से चित्रलेखा को पुत्र की प्राप्ति हुई, लेकिन पिता व बेटे दोनों ने संसार को छोड़ दिया। उसके बाद एक नर्तकी ने उसे आश्रय देकर नृत्य तथा संगीत कला की शिक्षा दी। फिर नृत्य में वह अद्वितीय बन गई। पाटलीपुत्र का जनसमुदाय चित्रलेखा के पैरो पर लोटा करता था, पर चित्रलेखा ने संयम के तेज से जनित क्रांति को बनाए रखा लेकिन बीजगुप्त पर मुग्ध होने से वह न बच पाई। इस रूप में चित्रलेखा परिस्थितियों के वशीभूत होकर चलने वाली युवती के रूप में आती है।
इस विलासी और वासनामयी रमणी के साथ-साथ चित्रलेखा तेजस्वी और विदुषी भी है। इसका परिचय वह चन्द्रगुप्त की सभा में अपनी तर्कनाशक्ति से कुमारगिरि को पराजित करके देती है। इसी प्रकार कुमारगिरि के आश्रम में जाने पर “प्रकाश अन्धकार को लुब्ध पतंग का प्रणाम” कह कर एक दार्शनिक होने का परिचय पर भी देती है।
चित्रलेखा बीजगुप्त से अत्याधिक प्रेम करती थी। परंतु आगे चल कर वह कुमारगिरि पर भी मोहित हुई। जो कि उसके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी। चित्रलेखा बीजगुप्त के भविष्य के लिए बीजगुप्त का त्याग करके वह कुमारगिरि के पास दीक्षित होने गई, परंतु कुमारगिरि ने उसे असत्य के जाल में उलझा कर उसका शोषण किया। जब चित्रलेखा को सत्य का ज्ञान हुआ तो वह आश्रम छोड़ कर अपने भवन लौट गई। बीजगुप्त के ऐश्वर्य त्यागने की बात जब चित्रलेखा को ज्ञात हुई वह बीजगुप्त से क्षमा मांगने लगी। बीजगुप्त ने उसे क्षमा किया और दोनों ने अपनी धन-संपत्ति त्याग कर पाटलिपुत्र से प्रस्थान किया। इस पूरे उपन्यास में चित्रलेखा एक रूपगर्विता उन्मादिनी विलासी स्त्री के रूप दिखाई देती है जो सदा ही पुरुष को अपनी वासना का शिकार बनाना चाहती है। वह अपने व्यक्तित्व से इस उपन्यास के लगभग सभी पुरुष पात्रों को प्रभावित करती है। इतना ही नहीं बीजगुप्त को यशोधरा से विवाह करके वंशवृध्दि के लिये प्रेरित करके वह अपने त्याग वृत्ति का परिचय भी देती है।
इस प्रकार लेखक ने एक प्रेमिका को पत्नी का स्थान दिलवाकर चित्रलेखा के रूप में प्रेम और वासना के भेद को स्पष्ट कर दिया है। जहाँ प्रेम स्थाई है, उसमें सम्पूर्ण समर्पण हैं, वहीं वासना क्षणिक है, अस्थाई है। यद्यपि कि यही वासना चित्रलेखा के चरित्र की कमजोरी है। इसी कमजोरी के कारण यह कुमारगिरि के जाल में बहुत जल्दी उलझ जाती है और जब तक उसे होश आता है तब तक सबकुछ समाप्त हो जाता है। चाहकर भी वह अपने प्रेमी बीजगुप्त को अपने भवन में नहीं रोक पाती है और उसे भी बीजगुप्त के साथ ही सबकुछ त्यागना पड़ता है। उपन्यास के अंत में अपनी त्यागी वृत्ती के कारण चित्रलेखा अपनी सम्पूर्ण दुर्बलताओं के बाद भी पाठकों की सहानुभूति प्राप्त कर लेती है। इसलिए अंत में यह कहना उचित होगा कि चित्रलेखा स्थिर चित्त नहीं है। उसने अपने वैधव्य में वैराग्य साधने की बात सोची लेकिन कृष्णादित्य के आते ही उसका विचार बदल गया और उसे अपने जीवन में स्वीकार कर लिया। एक नर्तकी के रूप में बीजगुप्त को उसने पहले तो ‘समुदाय के सामने ही मैं आती हूँ’ कह कर अस्वीकार किया लेकिन बाद में उसी से प्रेम करने लगी। यहाँ तक कि अपने मनोरंजन के लिए वह श्वेतांक को भी आकर्षित करती है। बाद में उसी से कहती है कि ‘मैं संसार में एक मनुष्य से प्रेम करती हूँ और वह बीजगुप्त है।’ लेकिन, कुछ समय बाद ही वह कुमारगिरि से प्रेम करने लगती है। विचारों की इसी अस्थिरता उसे और बीजगुप्त को अंत में निर्धन हो जाने की स्थिति में पहुँचा देती है।
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