अनुस्वार : क्यों?
अनुनासिक : शास्त्रीय प्रमाण ऐसा है।
इस प्रकार ‘आषाढ़ का एक दिन’ में नाटककार मोहन राकेश का संवाद कौशल खूब दिखायी देती है । संवादों में व्यंग्य-विदग्धता, वाक-चातुर्य, गंभीरता, रोचकता, समानुकुलता, परिस्थिति की अनुकूलता आदि दिखायी पड़ती है ।
भाषा-शैली:
नाटक के हर पात्र की शैली, संवाद की शैली, वातावरण की शैली अलग अलग होती है। भाव पक्ष को प्रस्फुटित करनेवाली शैली मात्र ही है। भाषा-शैली के बारे में डॉ. गोविन्द चातक का कहना है— “नाटक की भाषा सम्पूर्ण, सम्प्रेषण की भाषा है जिसमें जो एक-एक शब्द कहा गया है वह महत्वपूर्ण है ।”
मोहन राकेश का अभिप्राय है कि नाटक की भाषा जानने की नहीं होती बल्कि जीने की होती है।
‘आषाढ़ का एक दिन’ में पात्रोचित भाषा का प्रयोग हुआ है। ऐतिहासिक कथानक का स्मरण रखते हुए संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग किया गया है। नाटक की भाषा इसलिये कलात्मक और प्रभावशालिनी बनी है कि पात्रों की मानसिकता के अनुसार भावों के उतार-चढाव का परिचय मिलता है। कभी-कभी भाषा संवेदनशील बनी है जैसे कालिदास भावुक होकर कहता है— “भीगना भी जीवन की एक महत्वाकांक्षा हो सकती है, वर्षों के बाद भीगा हूँ, अभी सूखना नहीं चाहता।” भाषा द्वारा मनोविकारों का उचित विवेचन किया गया है। द्वंद्व पूर्ण स्थिति में कालिदास का करुणामय संवाद है— “मन में कहीं ये आशंका भी वह वातावरण मुझे छा लेगा और मेरे दिनों की दिशा बदला देगा और ये आशंका निराधार नहीं थी।”
‘आषाढ़ का एक दिन’ में लाक्षणिक भाषा के प्रयोग का उदाहरण दर्शनिय है जैसे कालिदास मल्लिका के घर पर रहकर कहता है— “कहूँ, आजकल नये छंद का अभ्यास कर रहे हो। व्यंग्यात्मक भाषा का भी परिचय मिलता है।” विलोम कालिदास से ईर्ष्या करके मल्लिका से कहता है— “कालिदास उज्जैयिनी चला जाएगा और मल्लिका जिसका नाम उसके कारण सारे प्रांत में अपवाद का विषय बना है, पीछे यहाँ पडी रहेगी।”
काव्यात्मक भाषा का प्रयोग देखने लायक है जैसे कालिदास की ये उक्ति – “मैं राजकीय मुद्राओं से क्रीत होने के लिए नहीं हूँ।”
भाषा में मुहावरों का प्रयोग भी है जैसे धर्म संकट खडा होना, जलते अंगारे-सी दृष्टि, बुरी हीन चक्र की तरह, तिलतिले पर गलना, आँखें गीली होना आदि।
निष्कर्ष:
पूरे नाटक में पात्रों का चरित्र संवाद द्वारा प्रकट किया गया है। स्वभाविक शैली में प्रत्येक पात्र का संवाद अर्थ गर्भित और ओजपूर्ण है। कालिदास, मल्लिका, प्रियंगुमंजरी तथा अम्बिका भावों-विचारों के अनुरूप सहज, सरल, प्रवाहमय नाटकीय भाषा का प्रयोग कलात्मक ढंग से किया गया है।